Saturday, November 28, 2020

घरेलू हिंसा की एक झलक


 
घरेलू हिंसा जैसा कि शब्द से ही  अर्थ प्रकट होता है कि घर में  होने वाली हिंसा चाहे वह बच्चियों के साथ हो या महिलाओं के साथ। हिंसा विभिन्न प्रकार के हो सकते है जैसे मानसिक ,शारिरिक , यौनिक हिंसा व अन्य ,हिंसा से तात्पर्य है कि कोई भी ऐसा कृत्य जो कि उक्त व्यक्ति की इच्छाओं के विरुद्ध हो रहा है ।
          भारतीय परिदृश्य में परिवार ,समाज ,परम्परा ,रीति रिवाज  को हमेशा से व्यक्ति की इच्छाओं से सर्वोपरि माना जाता है खाशकर जब बात महिलाओं की हो ।
महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में सबसे बड़ा अपराध उनके पतियों और सम्बन्धियों द्वारा किया गया क्रूरता पूर्ण व्यवहार है ।हर एक घंटे में ऐसे 10 मामले दर्ज होते है यह तो रिपोर्ट किये गए आकड़ो का जायजा है लेकिन भारतीय समाज में पारिवारिक व सामाजिक प्रतिष्ठा का हवाला देकर ऐसे मामले अक्सर दर्ज ही नहीं कराए जाते है।छेड़छाड़ ,पतियों द्वारा बलात्कार,दहेज उत्पीड़न ,स्वतंत्रता पूर्व जीवन जीने का अवरोध व अन्य ऐसे मामले है जो लगातार बढ़ते ही जा रहे है ।
             घरेलू हिंसा में महज शारिरिक हिंसा ही नही आता है मानसिक हिंसा जैसे पढ़ने से रोकना ,मर्जी के विरुद्ध शादी तय करना ,अपनी मर्जी के व्यवसाय चयन करने से रोकना,  आवागमन की स्वतंत्रता का न होना ।
मौखिक हिंसा ,भावनात्मक हिंसा ,आर्थिक हिंसा भी घरेलू हिंसा का ही भाग है ।
              आज की स्थिति यह है कि  महिलाओं के अंदर डर और अपनी बात न कह पाने की स्थिति इस कदर बन गयी है कि अपने साथ हुए बर्तावों को वह अपनी मां - बाप से भी नहीं कह पाती है इसका मुख्य कारण यह है कि अक्सर ऐसे मामले में उन्हें सम्मान की दुहाई देकर चुप करवा दिया जाता है या उनकी बात को अनदेखा कर दिया जाता है ,खाशकर यौनिक हिंसा ।
 यौनिक हिंसा का सबसे गहरा प्रभाव महिला के मानसिक स्थिति पर पड़ता है ।
      भारतीय परंपरा में शादी के बाद महिलाओं को यह सिखाया जाता है कि अब पति का घर ही उसका घर है और उसकी इच्छा ही सर्वोपरि है ,जिसके कारण अपनी इच्छाओं के विरुद्ध अपने पति द्वारा किये गए बलात्कार को भी न चाहते हुए भी स्वीकार करती है ।
     दहेज उत्पीड़न के कारण उन्हें जलाकर मार दिया जाता है या पूरे जीवन उन्हें अपशब्द ,गालियां ही सुननी पड़ती है ।
      ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ अशिक्षित महिलओं या  जो जागरूक नहीं है उन्ही के साथ हो रहा है ,ऐसा पाया गया है कि बड़े -बड़े ,व अच्छे परिवार से सम्बंधित महिलाओं के साथ मानसिक उत्पीड़न, मारपीट जैसी हिंसा होती है लेकिन पारिवारिक मर्यादा व अन्य कारणों से वह कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देती है ।
        ध्यातव्य है कि समाज का परिदृश्य बदल रहा है महिलाएं हर क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रही है व एक नया मुकाम हासिल कर रही है लेकिन इसकी प्रतिशतता बहुत ही कम है ,आर्थिक रूप में निर्भर महिलाओं का जीवन काफ़ी सुखद स्थिति में आ गयी है परंतु जहाँ बात आती है सम्पूर्ण भारतीय परिदृश्य की तो यह बहुत कम संख्या में है आज भी आधे से ज्यादा आबादी घर में निवास करती है ।
        जब पहली बार किसी स्त्री को अपशब्द बोला जाता है,या किसी तरह के शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना दी जाती है तो वह उसे महज एक दुर्घटना मान लेती कि गुस्से में या गलती से हो गया होगा या वह रिश्तों की मर्यादा समझ कर एक माफी पर सब भूल जाती है आखिर क्यों ?
वही अगला व्यक्ति फिर वही दुहराता है और फिर आपकी माफी सामने वाले को यह भ्रम में डाल देती है कि यह कमजोर है और यह कुछ भी नहीं कर सकती चाहे वह आपकी सहनशीलता है या बच्चों के भविष्य की चिंता ,धीरे-धीरे यह आपकी जिंदगी का सबसे बुरा समय बन जाता है जिससे मानसिक,शारीरिक प्रताड़ना का रूप ले लेती है ,अतः गलती यह है आपकी कि आपने सामने वाले कि पहली गलती माफ कर खुद ही उसे बढ़ावा दिया है ,पहली ही गलती क्यों न हो माफी की कोई गुंजाइश नही होनी चाहिए ।
मजबूरी अगर बनती है तो वह इसलिए क्योंकि आर्थिक कारण सबसे ज्यादा जिम्मेदार है ।
मानसिक रूप से शसक्त होना पड़ेगा महिलाओं को आपके साथ हो रही हिंसा में कही -न -कही हमारे निर्णय न लेने की क्षमता ही सबसे बड़ी कारण है ,
इसका समाधान यही है कि हम आर्थिक रूप से स्वनिर्भर बनने का पूर्णतः प्रयास करे।
     घरेलू हिंसा किसी न किसी रूप में प्रत्येक दूसरे घर में बनी हुई है चाहे वह मानसिक हो ,मौखिक हो ,शारिरिक हो ,भावनात्मक हो अतः इससे रोकथाम में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा ,जागरूकता ,आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर ही किया जा सकता है ,क्योंकि हिंसा करना न करना यह एक मानसिक और नैतिक विचार की उपज है परन्तु कानूनी रूप से जागरूक होना भी इससे बचने में काफी मददगार साबित होना चाहिए।

Tuesday, November 10, 2020

पिंजरे वाली आजादी

वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं ,खुद के ही पिंजरे में,
फड़फड़ाती हूं आजाद होने को,
नही है काफ़ी पढ़ने की आजादी ,
नहीं है काफी लिबास की आजादी ,
नहीं है काफी विचारों की आजादी ,
वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं ,खुद के ही पिंजरे में।
बड़ी पीड़ा सी है अंदर दूर तलक,
आजाद पँछी सा, आसमान में उड़ना चाहती हूं,
देखना चाहती हूं दुनियां को ,
अपनी आंखों से,
जानना चाहती हूं लोगों के अंदर,
बसे खामोश लफ्ज़ो को,
लिखना चाहती हूं ,
अनकहे अल्फाज़ो को,
वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं,खुद के ही पिंजरे में।
ये जो दिखती हूं,वो मैं हूं नहीं,
मेरे अंदर एक जमाना है,
नहीं हूं मैं इतनी गुमशुम सी शांत,
मेरे अंदर भी एक अल्हड़ सा,
खिलखिलाता बच्चा है,
खामोश हो जाती हूं लिहाज से ,
अंदर एक जलता हुआ अंगार सा है,
वक्त ढलता जा रहा ,
मैं कही कैद हूं,खुद के ही पिंजरे में।
रातों के अंधेरो को सवेरा होते देखना चाहती हूं,
अपने अंदर के अंधेरो से रौशनी तक का सफर ,
तय करना चाहती हूं,
अपने अंदर  फड़फड़ाती रूह को ,
उन्मुक्त आकाश में उड़ता देखना चाहती हूं,
बेखौफ हो ,सुकून से चंद लम्हें,
सागर की मचलती लहरों के साथ ,
सूरज को ढलते देखना चाहती हूं,
सागर के गहराइयों में ,मछलियों  के,
आशियानों को छूना चाहती हूं ,
वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं ,खुद के ही पिंजरे में।
पँछी की तरह बेखौफ  आकाश में उड़ना चाहती हूं,
खुद को पिंजरे से आजाद करना चाहती हूं,
खोखले से रिश्तों को ढोना नहीं चाहती हूं,
हां मैं खुद को आजाद करना चाहती हूं,
बेमतलब की बातों से दूर रहना चाहती हूं,
जीना चाहती हूं,उन्मुक्त गगन तलें,
हां, मैं पिंजरा तोड़ उड़ना चाहती हूं।

 महिमा  यथार्थ अभिव्य्यक्ति©


अनकहे अल्फ़ाज .....

Monday, November 9, 2020

सोशल मीडिया : भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी संस्कृति का अनदेखा प्रभाव



जिम्मेदार कौन ,केवल हम सब ,आभासी दुनियां में हम इतने गुम है ,मनोरंजन बेहद पसन्स है चाहे लिबास का हो या जिस्म का लेकिन अपने घर के महिलाओं ,बेटियों को छोड़ कर ,हम  भूल जाते है कि हर कोई महिला किसी न किसी परिवार से जुड़ी  ही हैं यह तो है एक पक्ष ,परंतु इसके दूसरे पहलू पर गौर हम कभी नहीं करते व्यक्तिगत हित के लिए ,कुछ क्षणिक सुख के लिए,
आर्थिक परंतु सरल रास्तों की खोज में,शारीरिक सुख के लिए समझौता कर लेते है और नाम मजबूरी का देते है ।
             आर्थिक रूप से सशक्त होना जीवन में सांस लेने जैसा आवश्यक है सब कुछ स्वतंत्रता में ही निहित है चाहे वह विचारों की स्वतंत्रता हो या अपने ढंग से जीवन जीने के लिए ,किसी की मदद करने के लिए ,जब तक हम किसी के अधीन है तब तक हम अपने ढंग से नहीं जी सकते ,अपनी रुचि के अनुसार काम नहीं कर सकते,  लेकिन केवल जीवनयापन के लिए यह आवश्यक है ,भौतिक व शारीरिक सुख के लिए पैसे की जरूरत है लेकिन मन ,आत्मा की शांति के लिए केवल अच्छे मनोभावों की आवश्यकता है ,न किसी छल की ,न ही किसी दिखावे की ,न ही किसीके समक्ष खुद को दर्शाने की ।
          आज के परिदृश्य में सोशल मीडिया का जो भावनात्मक स्वरूप दृष्टिगोचर हो रहा है वह न सिर्फ मानसिक तनाव के रूप में बल्कि मानवता की क्षीणता ,संस्कृति की क्षीणता ,अपनेपन की क्षीणता, मतभेद के साथ-साथ मनभेद के उतरोत्तर वृद्धि पर है,असमानता ,खुद को दिखाने की पुरजोर कोशिश में हम जो खो रहे है उस पर कभी  ध्यान भी नहीं जाता है।
अपने आप को लोग सिर्फ फॉलोवर्स के नंबर पर,लाइक, कमेंट और साझा करने तक ही समझने लगे है जहाँ धीरे-धीरे यह पारिवारिक अलगाव में वृद्धि कर रहा वही यह खुद से ही खुद के मूल स्वरूप से भी दूर कर रहा है।
             सोशल मीडिया और वास्तविक जीवन लोग कहते तो है अलग है लेकिन इस आभासी दुनियां का पूरा प्रभाव वास्तविक जीवन पर तो भरपूर है ही परंतु विचारों में भी है प्रायः यह देखा जा रहा है कि हम किसी भी तरह के पोस्ट ले ,चाहें वह  यौन  सम्बन्धी हो या किसी महिला के अंगप्रदर्शन से सम्बंधित हो,जाति-पात से ,साम्प्रदायिक  हो व अन्य जो कि संवेदनशील मुद्दे है हम उन्हें चाहते है कि लोग ज्यादा से ज्यादा पसंद करे ,टिप्पणी दे परन्तु जब वही टिप्पणी वास्तविक रूप में सामने होती है तो वह अभद्र टिप्पणी, छेड़खानी,राष्ट्रविरोधी हो जाती है इतना दोहरा विचार ,इतना दोहरा चरित्र समाज में कैसे और क्यों ,यह किस हद तक सही है ?
        यौन शिक्षा लोगों  को लेने में शर्म आती है ,उससे संस्कृति क्षीण होती है लेकिन इसमें शामिल होना या इस तरह के पोस्ट को प्रमोट करना परोक्ष रूप से क्या यह, प्रभावित हमारे वास्तविक जीवन को नहीं करता,जो आभासी दुनियां में बहुत अच्छा है वह जब सच में हो रहा तो गलत क्यों? महिला हो या पुरुष कोई भी अछुता नहीं है इस हो रहे कृत्य से ,प्रश्न खड़े होते तो है विचार सही नहीं है लेकिन इसके पीछे का वास्तविक कारण सब अनदेखा करते जा रहे है ,विचार हमेशा वास्तविक परिदृश्य से बनते है लेकिन हम तो दोनों के बीच भवँर में फंसे है आभासी दुनियां में जो बेहतर है आपकी पहचान मानी जानी है वही वास्तविक जीवन के सच से कोसों दूर है ,कैसे हम सोच सकते है कि लोगों के विचार अच्छे हो समानता आये महिला पुरुष में,विचारों में हो ही नहीं सकता ।सबसे पहले हमें खुद के इर्द गिर्द घूमती इस दुनियां को एक जैसा करना चाहिए ,करते कुछ नहीं कि सही हो लेकिन उम्मीद करते है कि सब लोग के विचार ,भाव ,महिलाओं या पुरुषों के लिए उनकी सोच समान हो ।
           बच्चें के दिमाग पर ,उसके विचार,भाव, लिंग विभेद व अन्य का प्रभाव उसके बचपन में ही पड़ता है ,जो भी बातें हम बचपन में हँस कर ,गलती मानकर अनदेखा करते है उसका प्रत्यक्ष प्रभाव उसके युवा होने की अवस्था में दिखाई देता है ।सुधार की अगर अपेक्षा समाज से की जा रही है तो क्यों वह सुधार स्वयं से या खुद के घर आस -पास के परिदृश्य से ,विद्यालय  व अन्य से नहीं,आखिर क्यों  ?   


महिमा©


आखिर क्यों

    In this modern era,my emotional part is like old school girl... My professionalism is like .. fearless behavior,boldness and decisions ...