Tuesday, November 10, 2020

पिंजरे वाली आजादी

वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं ,खुद के ही पिंजरे में,
फड़फड़ाती हूं आजाद होने को,
नही है काफ़ी पढ़ने की आजादी ,
नहीं है काफी लिबास की आजादी ,
नहीं है काफी विचारों की आजादी ,
वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं ,खुद के ही पिंजरे में।
बड़ी पीड़ा सी है अंदर दूर तलक,
आजाद पँछी सा, आसमान में उड़ना चाहती हूं,
देखना चाहती हूं दुनियां को ,
अपनी आंखों से,
जानना चाहती हूं लोगों के अंदर,
बसे खामोश लफ्ज़ो को,
लिखना चाहती हूं ,
अनकहे अल्फाज़ो को,
वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं,खुद के ही पिंजरे में।
ये जो दिखती हूं,वो मैं हूं नहीं,
मेरे अंदर एक जमाना है,
नहीं हूं मैं इतनी गुमशुम सी शांत,
मेरे अंदर भी एक अल्हड़ सा,
खिलखिलाता बच्चा है,
खामोश हो जाती हूं लिहाज से ,
अंदर एक जलता हुआ अंगार सा है,
वक्त ढलता जा रहा ,
मैं कही कैद हूं,खुद के ही पिंजरे में।
रातों के अंधेरो को सवेरा होते देखना चाहती हूं,
अपने अंदर के अंधेरो से रौशनी तक का सफर ,
तय करना चाहती हूं,
अपने अंदर  फड़फड़ाती रूह को ,
उन्मुक्त आकाश में उड़ता देखना चाहती हूं,
बेखौफ हो ,सुकून से चंद लम्हें,
सागर की मचलती लहरों के साथ ,
सूरज को ढलते देखना चाहती हूं,
सागर के गहराइयों में ,मछलियों  के,
आशियानों को छूना चाहती हूं ,
वक्त ढलता जा रहा है,
मैं कहीं कैद हूं ,खुद के ही पिंजरे में।
पँछी की तरह बेखौफ  आकाश में उड़ना चाहती हूं,
खुद को पिंजरे से आजाद करना चाहती हूं,
खोखले से रिश्तों को ढोना नहीं चाहती हूं,
हां मैं खुद को आजाद करना चाहती हूं,
बेमतलब की बातों से दूर रहना चाहती हूं,
जीना चाहती हूं,उन्मुक्त गगन तलें,
हां, मैं पिंजरा तोड़ उड़ना चाहती हूं।

 महिमा  यथार्थ अभिव्य्यक्ति©


अनकहे अल्फ़ाज .....

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आखिर क्यों

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