Tuesday, October 13, 2020

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

https://youtu.be/bg_kY6JysuY

ख्वाहिशों की लंबी फेहरिस्त रहती होगी ,
उन छोटे -छोटे बच्चों और बच्चियों में जो,
सुबह सुबह कद से भी बड़ा झोला टाँगे ,
फिरते है दर बदर ,
कभी जूठे बोतलों की तलाश में तो कभी छोटे बड़े लोहे की टुकड़ो में तो कभी रद्दी के मोटे दफ़्तियो को ढूंढने में,
 नंगे पांव घूमते है ,
नजर से न देखने योग्य कूड़ो के ढेरों में 
तो कभी बेखौफ से घुसते है ,असुरक्षित जगहों में,
ख्वाहिशों की लंबी फेहरिस्त लिए फिरते है दर- बदर,
कुछ न कर सको तो कम से कम ,
घर मे पड़े बोतलों और डिब्बों को ,
सम्भाल के रख ही दिया करो,
जब घूमते है ये बच्चें तो ,
उस रद्दी के सामानों को सुपुर्द ही कर दिया करो,
नही कहती मैं की उन्हें घर बिठाओ या ,
खाना खिलाओ मगर ,
जितना कर सको आसानी से उतना तो कर ही दो ,
ख्वाहिशों की लंबी फेहरिस्त रहती होगी,
हर एक के मन में।

- महिमा सिंह (यथार्थ अभिव्यक्ति)

Saturday, October 10, 2020

मातृभाषा और के अवनति का आरंभ

  मातृभाषा और मानवता के अवनति का आरंभn 


खामोशी के साथ सब कुछ देखते रहना किस हद तक सही है ?क्या आज तक जितने भी काम किये गए हैं चाहें बात आजादी की हो या अधिकार की या अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की हो किसी न किसी के द्वारा उसकी शुरुआत की गयी है तभी आज हम आजादी,संवैधानिक अधिकारों, सुरक्षा , अभिव्यक्ति ,स्वतंत्रता और गौरवमयी जीवन जी रहे हैं, तो फिर आज हम क्यों लगातार बढ़ती हिंसा,अपराध,बलात्कार,भ्रष्टाचार, एसिड अटैक व अन्य अपराधों के लिए आवाज नहीं  उठाते जब तक कि बात व्यक्तिगत नहीं  हो, आखिर क्यों?
          परिवर्तन अटल सत्य है, लेकिन बिना प्रयत्न के संभव भी नहीं है ,बीते दिनों हिंदी दिवस के अवसर पर लगभग सभी के स्टेटस, सोशल मीडिया, व अन्य जगह काफी सम्मान दिया गया लेकिन विचारणीय है कि क्या यह या इसके पीछे के उद्देश्य यथार्थ रहे है, नहीं ? सामयिक समय की मांग और या यूं कहें तो लोगों की इच्छा नहीं मजबूरी या जरूरत है कि उन्हें अन्य भाषाओं की तरफ अपना आकर्षण रखना ही होगा क्योंकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो हिंदी हमारी मातृभाषा है लेकिन मांग नहीं है, जरूरत नहीं पूरी हो सकती है आज भी यहाँ लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण अंचल में निवास करती है ,बच्चों की आधारभूत शिक्षा वहीं से होती है ,अन्य भाषा एक डर भी है और उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी,  कहीं न कहीं ,जितने भी कर्मचारी हैं उन्हें सेवा जिसे देनी है वह आज भी लगभग अन्य भाषा की अपेक्षा मातृभाषा में बेहतर है ।
        बात की जाती है कि अन्य देश जैसा कि जापान ,यूएसए इतनी तरक्की पर क्यों हैं,  उन्होंने अपने तकनीकी शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में अपनी मातृभाषा को अहमियत दी है,मातृभाषा में शिक्षा व्यक्ति को सहज,सृजनात्मक ,साहित्यिक और कल्पनाशील बनाता है। किसी भी देश के लिए शिक्षा,स्वास्थ, तकनीकी विकास ,सूचना प्रौद्योगिकी व अन्य क्षेत्रों में आशातीत विकास की जरूरत है।। 
      भूमण्डलीकरण के कारण आज प्रत्येक देश एक दूसरे से जुड़े हुए हैं,  लेकिन अपनी मातृभाषा और अपनी जनता ,युवा समाज की सृजनात्मक क्षमता  के विकास हेतु व लोगों को कार्यालय से जोड़ने , जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आवश्यकता है कि मातृभाषा को ज्यादातर अपनाया जाना चाहिए ।
       हम भारतीयों में एक अलग ही तरह की मानसिकता है या यूं कहें तो लगातार मातृत्व मृत्यु दर,यौन समन्धित बीमारियों, बलात्कार अन्य अपराध कहीं न कहीं कारण है अनवरत लोंगो में घटती सहनशीलता,धैर्य और बढ़ती क्रोध,अहंकार, लालच,कामवासना है ,ज्यादातर पाया गया है कि लोग कामवासना को अपने दिमाग में हर क्षण रखते हैं और अपने काम,अपनी प्राथमिकता को हमेशा द्वितीयक मानते है जबकि पश्चिम के देशों में देखा जा रहा है कि लोग अपने काम ,अपनी प्राथमिकता को दिमाग में रखते है जबकि कामवासना को उसके सही जगह ,जिसके कारण वह लगातार विकास कर रहे हैं ,कुछ नया सृजन कर रहे हैं ,नवाचारी विचार कर रहे है,अनुसंधान कर रहे हैं और समाज व राष्ट्र की सेवा में अग्रणी है ।
              हिंसा ,यौन अपराध ,बलात्कार जैसी घटनाएं लगातार भारत में बढ़ती जा रही है इन क्षणिक सुखों की पूर्ति की इच्छाशक्ति लोगों में इतनी ज्यादा बढ़ती जा रही है कि लोग इसके लिए किसी भी हद तक जाने से पीछे नहीं हट रहे हैं। बार-बार बातें सामने आती है महिलाएं असुरक्षित है इनके साथ यह गलत हुआ ऐसा हुआ यह सत्य तो है कि लेकिन अगर सही ढंग से विचार किया जाय तो सही यह भी है कि जिम्मेदार कहीं न कहीं महिला वर्ग भी है ,कुछ वक्त पहले ही सामने आयी सोशल मीडिया की एक पोस्ट थी और शायद लोगों में मानसिकता भी की एक माँ अपने अंगप्रदर्शन बहुत ही गलत ढंग से कर रही है और फिर बोल रही है कि जब भी भविष्य में मेरे बच्चें देखेंगे तो बोलेंगे की माँ कितनी कमाल की थी ,सही है कि यह व्यक्तिगत सोच हो सकती है लेकिन कहीं न कहीं यह उस सम्पूर्ण वर्ग और भविष्य में भी खतरा है उस वर्ग के साथ ,प्रायः विधवा आश्रम,अनाथालय में उच्च पदों पर महिला वर्ग ही है तो कैसे यह सम्भव हो रहा है कि वहां से लड़कियों की तस्करी,वैश्यावृत्ति व अन्य में महिलाएं जा रही हैं,  हम व्यक्तिगत मानसिकता लोगों की न खत्म कर सकते है न ही बदल सकते है ,स्वार्थसिद्धि ,व्यक्तिगत हित की पूर्ति के लिए सारे अनिष्ट कृत्य किये जा रहे है क्या यह विचारणीय नहीं है ?
                 नियत और नियति में व्याकरण के स्तर से बहुत कम अंतर है परंतु नियति अच्छी है तो ठीक है सब लेकिन अगर नियत अच्छी है तो नियति तो साथ होती ही है और मन मे शांति और संतुष्टि के साथ सेवा का भाव भी है ,नियत ही अच्छी न होने के कारण ही आज लगातार भ्रष्टाचार, असहनशीलता, लोभ ,माया सब बढ़ती ही जा रही है और यह न केवल व्यक्तिगत क्षति है बल्कि यह राष्ट्र की सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक ,सामाजिक क्षति है , विचारणीय है और चिंतनीय विषय भी ।
         गलत,बुरा,या पाप को सहने वाला भी जिम्मेदार है उतना ही जितना कि करने वाला -गीता में स्पष्ट शब्दों में वर्णित है और अटल सत्य भी है ,परिवर्तन और बदलाव संसार का नियम है उसके लिए हमें आवाज उठानी होगी ,मौन रहना अच्छी बात है लेकिन समझदारों का मौन होना बहुत ही गलत बात है वह न सिर्फ आज बर्बाद करेगा बल्कि आने वाले कल को भी प्रभावित करेगा ।
       विचार करें कि क्या यह मानवता के अंत का आरम्भ नहीं हो रहा !



Thursday, October 1, 2020

स्वच्छता की यथार्थता


                "स्वच्छता की यथार्थता"

हमसे प्रकृति नही है प्रकृति है तो हम है ,हमारा अस्तित्व है ,लेकिन वर्तमान समय में लगातार प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा,लगातार वृक्षों की कटाई हो रही ,नदियां गंदी हो रही है ,भूमिगत जल स्तर में लगातार गिरावट हो रही है,साँस सम्बंधित बीमारियां बढ़ रही है,उत्पादन में बढ़ोत्तरी बहुत हुई है लेकिन लगातार उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग से कई बीमारियों की उत्पत्ति हो रही है,मोटरवाहनों के अत्यधिक प्रयोगों से ध्वनियों सम्बंधित समस्याओं का उदय हो रहा है,सब मानवीय कारणों से ही है ।
               देश मे स्वच्छता सम्बन्धित कई योजनाएं चल रही है स्वच्छ भारत मिशन,नमामि गंगे ,पालीथीन मुक्त भारत  आलम यह है कि आज हम बगल में अभियान का संचालन कर रहे है और वही पानी के बोतलों, पान खाकर थूकना,पैक्ड नाश्ता के पालीथीन को वही फेक दे रहे है। रेलवे स्टेशनों पर बोतलों के प्रबन्ध की व्यवस्था है लेकिन शायद वह भी सिर्फ दिखावे के लिए ही रह गया है,पानी के पाउच वाले पालीथीन  हम कही भी फेक देते है क्योंकि हमें थोड़े ही उस स्थान पर रहना है ,लेकिन लोगो को यह बात क्यों समझ मे नही आती है हवाओं में फैली इन गंदगी को किसी सीमा,चेकपोस्ट या देश में बांध कर नही रखा जा सकता है ।
         नदियों को हम भारतीय माता मानते है लेकिन बड़े -बड़े फैक्ट्री ,महानगरों, शहरों,में वहाँ की पूरी गन्दगी को नदियों में ही गिराते है ,जिसमें न जाने कितने  हानिकारक केमिकल नदियों से सागरों तक मिल जाते है जिससे लगातार हमारे जलीय पारितंत्र ,जीवों की विविधता को कम कर दिया है ,न जाने कितने जलीय जीव खत्म होते जा रहे है ,उन्ही केमिकल युक्त जल ,गन्दगी का सेवन जलीय जीव भी करते है जिससे मांसाहारी मनुष्यों में भी अनगिनत बीमारियों में इजाफा हो रहा है । जल का इतना बड़ा भंडार होते हुए भी आज हम पीने के पानी को खरीद कर पी रहे है लेकिन फिर भी लगातार नदियों ,तालाबों, सागरों में गंदगी लगातार बढ़ रही है ,भूमिगत जल स्तर गिरता जा रहा है
                 वृक्षों की कटाई जितनी तेजी से की जा रही है वृक्षारोपण उतना ही कम है ,हम यहाँ कार्यालयी रिपोर्ट की नही यथार्थ की बात कर रहे है वृक्षारोपण किया जा रहा है लेकिन वह भी सिर्फ दिखावा रह गया है आधारभूत स्तर पर देखा जाय तो इसे चाहे पेशेवर व्यक्ति हो या अधिकारी वर्ग एक काम समझकर उस वक्त पूरा करता है वृक्ष लगा या नही इससे कोई ताल्लुकात नही है ।
        आज हम अपने घर के कूड़ो को निकाल कर घर साफ कर ले रहे है लेकिन वही कूड़ा घर के बगल में फेंक दी रहे है क्या उस कूड़े से मिश्रित हवाओं को ,हानिकारक गैसों को हम अपने घर मे आने से रोक सकते है । कूड़ा घर में हो तो जिम्मेदारी आपकी लेकिन आपके बगल में आपने फेक दिया तो जिम्मेदारी नगरपालिका की ,सरकार की है ।हम अपने स्वास्थ्य ,पर्यावरण के लिए सबसे पहले स्वंय जिम्मेदार है।
                         पालीथीन मुक्त भारत योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया लेकिन कुछ वक्त तक ही जबकि आज जो मानक रखे गए थे पॉलीथिन के लिए आज उसका कोई महत्व नही है सब कुछ खत्म क्या प्रकृति की रक्षा और स्वच्छता के दायित्वों का निर्वहन केवल बड़े -बड़े समारोहों,सोशलमीडिया के चंद पोस्ट तक ही सीमित है क्या यह हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा नही है । क्या हम सांसे लेना या भोजन कुछ भी छोड़ते है नही लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में होने वाले गन्दगी को हम मानते है कि हमे बाहर थोड़े ही रहना है हमे तो अपने घर में रहना है जब तक कि यह धारणा बनी रहेगी लगातार पर्यावरणीय असन्तुलन बना रहेगा ।
                     अगर एक स्वच्छ वातावरण में जीना है तो व्यक्तिगत, सामाजिक, औद्योगिक अन्य स्तर पर अपने मौलिक कर्तव्यों का निर्वहन और प्रकृति के लिए अपने समर्पण के साथ हमें स्वच्छता हेतु जागरूक होना होगा ।


महिमा सिंह (यथार्थ अभिव्यक्ति)

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आखिर क्यों

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