हूं साँस नहीं हूं डोर नहीं,
बस हर पल हूं साथ खड़ी,
नीर नहीं सिंचित मन की ,
रक्त नहीं मैं काया की,
संबल हूं जीवन में उसके,
अर्थ नहीं जो काम आऊ,
ओत प्रोत हूं रंग में उसके,
प्रीत है संबल मेरा भी ,
काया का सौंदर्य नहीं हूं,
मन की पूरित नक्श हूं ,
गढ़ी हुई हूं खुद की ,
नूर है मुझमें ,
अक्श है उसका,
अन्तःसम्बल हूं मैं उसका,
वह बसा है मुझमें रोम रोम में,
है निहित वो मुझमें संबल जैसे,
हर पल है मुझमें साथ खड़े,
हो साथ नहीं तो क्या गम है,
मुझमें है वह क्षण- क्षण में,
हूं साँस नहीं हूं डोर नहीं,
बस हर पल हूं साथ खड़ी।
यथार्थ©©
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