वह खामोश सी है आभा में ,
धैर्य ही है उसका स्वभाव,
उसकी भी है अपनी सीमा ,
उल्लंघन है विनाशक परिणाम,
सहन शक्ति है भरी हुई,
दहसत है उसकी मर्यादा,
लगातार उच्छिन्न किया है हमने उसको,
जीवनदायनी जो है हमारी,
प्राण वायु का हुआ अपमान और ,
ख़रीदे प्राण वायु, उसमें भी है ,
कुंठित हुई वह जिसने काटा उसने रखा,
बड़े -बड़े घरौंदे उनके ,प्राणवायु बिकी भी उनसे,
लाचारी में तड़पता किंचित न वायु मिली न घरौंदा ,
लगातर उजड़ते उसके घरौंदे ,त्रस्त हुई अपमान से वह ,
ऐसा आया झंझावात सब हो गए बिना घरौंदे,
सारा संसार है उसकी कोख ,है सब उसके अपने ही,
फिर वह कैसे सहती यह भिन्नता कैसे धैर्य वह रख पाती,
हुआ विखंडन त्रस्त हुए सब फिर भी खत्म हुआ न यह,
शीतलता है उसकी काया रौद्र है उसका उफान भी,
अग्नि है प्राण तत्व भले ही रौद्र है उसकी ज्वालामुखी,
न कर क्रोधित उसके मन को विखंडन है उसकी अग्नि,
जब वह अपना आपा खोती ,महाप्रलय निश्चित ही है,
है नही रोकना प्रलय उसके हाथ ,
अनावश्यक हो न कुछ भी ,है वह उसकी पूरी ऊर्जा,
ऊर्जा नहीं है वह उसका ही अंश ,
मत दो पीड़ा उसके मन को,
है वह हमारी पृथ्वी माता ....
महिमा सिंह यथार्थ अभिव्यक्ति©©
No comments:
Post a Comment