उपेक्षित सा एहसास क्यों है,
कोमल सृजित उस बीज को रखा है खुद की गोंद में,
है तपिश मुझमें बहुत पर झांप भी लगती नहीं,
है रक्त से सिंचित मेरे,जीव प्राण आधार वह!
गंदगी को छोड़ जाता गंदगी जैसा समझ कर,
रिस-रिसा कर सोख जाती ,जीव के मलीन को,
क्रोध की है ज्वाला मुझमें समन्वयक है धैर्य ही!
भार से ढका हुआ है कतरा -कतरा नब्ज तक,
जकड़ गया है कंठ मेरा रूह की आवाज है,
है परखता हर कोई क्या जान पाया अक्स मेरा !
नीले चादर से ढका है बदन मेरे रूह तक,
पर है तपिश की ज्वाला कहीं तो ,
है उफ़ान सी जिंदगी कहीं,
फिर भी है रक्त मेरा क्यों उपेक्षित ,
क्यों मिलावट गन्दगी का कर रहा तू रक्त में !
नीला अंबर छाव मेरा उसमें है अब,
क्षिद्र थोड़ा, फट गया जो छाव मेरा,
तपिश सूर्य की न बचा सकेगी कुछ!
धरा हूं मैं प्रेम है ,तपिश भी,कोमल भी हूं,
शीतलता से भरी हुई हूं, धैर्य से परिपूर्ण हूं,
विखण्डन हूं विनाश हूं तपिश से भी पूर्ण हूं
धरा भी हूं और माँ भी हूं........
महिमा यथार्थ©
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