Friday, November 18, 2022

मेरी भावनाएं-1

"कई रास्तों का सफ़र तय किया है मैंने,
और थक कर,ठहर कर  हर बार देखा,
मेरे अंदर आता रास्ता ही मेरा सुकून है!"

          
       कहीं तो जाना था मुझे कहीं तो पहुँच रही हूं कुछ सवाल मन में उलझें हुए कोई जवाब तो पाना है मुझे । ढूढ़ रही मगर बेचैन भी नहीं हूं शांत हूं मगर सब धुंधला  सा है ,कश्मकश में हूं समाज, कायदे, मर्यादा ,स्वाभिमान कर्म ,मन की शांति क्या चुन लूँ और क्या छोड़ दूं, कहीं तो जाना था मुझे कहीं तो पहुँच रही हूं।
      अपने मन के कुछ बात लिखने का मन है मेरा तो सोचा चलो कुछ यों ही हाल-ए-दिल बयाँ करते है।
     कई बार आता है कि चलो उन रास्तों को एक सही मंजिल तक ले चलूँ जिन रास्तों की शुरुआत मात्र लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है ,जिन रास्तों का सफर मेरे माँ- बाप  से शुरू हुआ ताकि लोग भी समझ सके कि लड़कियां बोझ नहीं आपकी ताकत है ,आपकी खुशी हैं ,शिक्षा अधिकार है उनका और भरोसा करो वह तुम्हें आसमाँ की झलक दिखाएंगी ,काफ़ी हद तक मैंने देखा मेरा रास्ता लोगों की प्रेरणा हैं ।
    अपने उन रास्तों में लगें रुकावटों को कम करने की कोशिश करूँ ताकि उनके मन में केवल सपना हो डर के वगैर ,ताकि आने वाली पीढ़ी को यह न लगे कि आख़िर हम लड़कियों को ही टिप्पणी का दंश क्यों झेलना होता है ,ताकि कोई माँ -बाप ये न कहें कि भोकने दो तुम हाथी की तरह अपने सपने पूरे करो,ताकि वह निर्भीक होकर आ जा सके ,मैं कोशिश कर सकूं की सुरक्षा बढ़ जाये और उन रास्तों पर आज़ाद कोई लड़की पढ़ने आ जा सके ।
मुझे लगता है कि इस सफर को अंजाम देना ही मेरा कर्तव्य होगा ताकि हर माँ-बाप सोचे कि लड़की का  आत्मनिर्भर होना ही  सबसे प्रथम प्राथमिकता है।
              एक तरफ मेरे जीने का सलीक़ा मुझे शांतिपूर्ण तरीके से ,अनुशासन में बिना किसी बाहरी रुकावट के मस्ती में जीवन व्यतीत करने का करता है ,मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है घरेलू पंचायत में ,मेरी रुचि बस मात्र इतनी है कि दिन सूर्यदेव के प्रणाम से शुरू होकर किताब के कुछ पन्ने लिए हल्के प्यार की थपकी के साथ खत्म हो।
        फिर दिमाग में आता हैं जैसा कि हमारा सामाजिक रीति बनी हुई है मुख्यतः उत्तर भारतीय परिदृश्य में कि लड़की की शादी मतलब लाखों से भी अधिक खर्चे ,अगर नौकरी नहीं करती हूं तो दहेज के दबाव मेरे माँ बाप को होगी जिन्होंने तो सिर्फ हमें आत्मनिर्भर बनाने में सर्वस्व लगाने की कोशिश कि , मुझे दहेज जैसी रीति में कोई रुचि नहीं है ,फिर आता है कि अपने किताबों के मूल्य,अपने सभी भारतीय धार्मिक स्थलों की जानकारी और उनकी शक्ति को महसूस करने की जो ईच्छा है उनके ख़र्चे,दाना डालने के लिए पैसे, अपने खान-पान के खर्चे ,किसी को मदद देने के लिए पैसे ,कहां से आएंगे इसलिए आत्मनिर्भर तो होना ही हैं।
        कभी -कभी लगता है कि शादी कर ले फिर सोचते है इन सब सामाजिक उलझनों में फँस कर कही मैं अपने अस्तित्व ,अपने संवेदनशीलता को न खो दू ,उन तमाम कहानियों की आंतरिक प्रेरणा ,सोच को न खो दू जिन्हें जानना ,लिखना मेरा हक और ईश्वर का आदेश है ,उन तमाम सूख चुकी आँखों ,भूखे बच्चों की आशा उनकी उम्मीदों को न खो दूं।
        उस प्रेम को अपने अंदर ही कैसे खो दूं जो कृष्णा ने हर इंसान के स्पर्श ,अक्स और आत्मा में संजो रखा ,स्पर्श की पवित्रता कैसे खो दूं।
         आज मैंने इसलिए लिखा है कि मैं अपनी बात तो रख सकूँ क्योंकि मैं अपने अंदर ही बातों को ,सोच को रख कर उस वक्त का इंतजार नहीं कर सकती जब मैं आत्मनिर्भर होऊंगी तब करूँगी ,बोलूंगी ,क्योंकि जीवन रहा तो अपने कर्तव्य को पूरा करने की जिम्मेदारी मैं स्वयं लेती हूं.....
       मुझे इस बात का इंतजार नहीं करना है कि कोई हो जिसे बताऊ सबसे पहले खुद तो बताऊ क्या बात है,लिखना मेरे सुकून का जरिया है यह पानी की तरह मुझे धीरे -धीरे शांत करता है!
          आगे भी फ़लसफ़ा जारी रहेगा!

मेरे विचार मेरे स्वयं के किसी भी प्रकार से कॉपी करने पर कॉपी राइट क़ानून के तहत कार्यवाही हो सकती है ,कृपया ध्यान रखें।महिमा सिंह©



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