रिक्तता
मैंने अपने जीवन में महसूस किया है कि हम जैसे -जैसे बड़े होते है खुद को एक दायरे में बांधते चले जाते है मेरा दायरा कहने का तात्पर्य है कि खुद को किसी एक ही भावना,एक ही व्यक्ति,एक ही काम व अन्य में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते है और फिर अमूक काम,भाव ,व्यक्ति से हम दूर होते है या असफ़ल होते है तो हम पूरी तरह खुद को रिक्तता /खालीपन से घिरा हुआ पाते है।
मैं जिंदगी को जीने में ज्यादा यक़ीन करती हूं खुद को सीमित करने के बजाय ,मुझे याद मैंने कहीं स्वामी विवेकानंद जी की एक लाइन पढ़ी थी कि "जिस वक्त आप जो कर रहे है उस वक्त आपका मन,आत्मा ,दिमाग पूरी तरह उस समय में होना चाहिए ।"चाहे वह काम हो,पढ़ाई हो,सृजनात्मक काम हो,खेल हो या अन्य।
हम एक दिन में बहुत से काम करते है कुछ एक -दो परिस्थितियों को छोड़ देते है तो हम लगभग काम पूरे मनोयोग से कर सकते है।
मैंने जब भी खुद को एक केंद्रित काम,भाव व अन्य के लिए सर्वस्व छोड़ा है मैंने सफलता या असफलता के बाद अपने अंदर रिक्तता को पाया है और जब जब मैंने अपने आप को प्रकृति,मानवता, स्वास्थ्य,व्यवसाय , भाव व अन्य को एक साथ अलग -अलग जीया और महसूस किया है मैंने स्वयं को भरा हुआ पाया है।
हम प्रेम की तलाश को केवल जब एक व्यक्ति के रूप में देखते है तो हम रिक्तता को अवश्य महसूस करेंगे ,प्रेम तो खुद का ख्याल रखने से लेकर प्रकृति से प्रेम, विकास, स्नेह ,लोगों की मदद उनकी मुस्कुराहट ,दोस्तों की हँसी, अध्यात्म सब कुछ में प्रेम ही है बस महससू करना है,अपनी रिक्तता का जिम्मेदार आप खुद होते है क्योंकि आप अपनी खुशियां केवल केंद्रित भाव से देखते है किसी एक लक्ष्य, एक व्यक्ति ,एक काम व अन्य की पूर्णता में।
अपने आप को खुद से जोड़े सबसे पहले फिर प्रकृति ,काम ,अभ्यास ,अध्यात्म फिर इन सब को साथ लेते हुए किसी से समर्पण रखेंगे तो कभी भी रिक्तता महसूस नहीं करेंगे क्योंकि तब सारे भावों का सम्मिश्रण आपको फिर से भर देगा । यह अनुभव है जीवन के एक पहलू का।
मैंने अपने जीवन में महसूस किया है कि हम जैसे -जैसे बड़े होते है खुद को एक दायरे में बांधते चले जाते है मेरा दायरा कहने का तात्पर्य है कि खुद को किसी एक ही भावना,एक ही व्यक्ति,एक ही काम व अन्य में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते है और फिर अमूक काम,भाव ,व्यक्ति से हम दूर होते है या असफ़ल होते है तो हम पूरी तरह खुद को रिक्तता /खालीपन से घिरा हुआ पाते है।
मैं जिंदगी को जीने में ज्यादा यक़ीन करती हूं खुद को सीमित करने के बजाय ,मुझे याद मैंने कहीं स्वामी विवेकानंद जी की एक लाइन पढ़ी थी कि "जिस वक्त आप जो कर रहे है उस वक्त आपका मन,आत्मा ,दिमाग पूरी तरह उस समय में होना चाहिए ।"चाहे वह काम हो,पढ़ाई हो,सृजनात्मक काम हो,खेल हो या अन्य।
हम एक दिन में बहुत से काम करते है कुछ एक -दो परिस्थितियों को छोड़ देते है तो हम लगभग काम पूरे मनोयोग से कर सकते है।
मैंने जब भी खुद को एक केंद्रित काम,भाव व अन्य के लिए सर्वस्व छोड़ा है मैंने सफलता या असफलता के बाद अपने अंदर रिक्तता को पाया है और जब जब मैंने अपने आप को प्रकृति,मानवता, स्वास्थ्य,व्यवसाय , भाव व अन्य को एक साथ अलग -अलग जीया और महसूस किया है मैंने स्वयं को भरा हुआ पाया है।
हम प्रेम की तलाश को केवल जब एक व्यक्ति के रूप में देखते है तो हम रिक्तता को अवश्य महसूस करेंगे ,प्रेम तो खुद का ख्याल रखने से लेकर प्रकृति से प्रेम, विकास, स्नेह ,लोगों की मदद उनकी मुस्कुराहट ,दोस्तों की हँसी, अध्यात्म सब कुछ में प्रेम ही है बस महससू करना है,अपनी रिक्तता का जिम्मेदार आप खुद होते है क्योंकि आप अपनी खुशियां केवल केंद्रित भाव से देखते है किसी एक लक्ष्य, एक व्यक्ति ,एक काम व अन्य की पूर्णता में।
अपने आप को खुद से जोड़े सबसे पहले फिर प्रकृति ,काम ,अभ्यास ,अध्यात्म फिर इन सब को साथ लेते हुए किसी से समर्पण रखेंगे तो कभी भी रिक्तता महसूस नहीं करेंगे क्योंकि तब सारे भावों का सम्मिश्रण आपको फिर से भर देगा । यह अनुभव है जीवन के एक पहलू का।
No comments:
Post a Comment